Dow Theory: डॉव थ्योरी द्वारा शेयर मार्केट से वेल्थ क्रिएट करें?

डॉव थ्योरी एक वित्तीय सिद्धांत है जो बताता है कि अगर डॉव जोन्स इंडस्ट्रियल एवरेज (डीजेआईए) जैसे प्रमुख एवरेज में से कोई एक पिछले महत्वपूर्ण उच्च सलेवल को पार कर जाता है, तो इसका मतलब शेयर मार्केट ऊपर की ओर बढ़ रहा है। 
इस मूवमेंट की पुष्टि डॉव जोन्स ट्रांसपोर्टेशन एवरेज (डीजेटीए) जैसे दूसरे एवरेज में इसी तरह की वृद्धि से होती है। आइए विस्तार से जानते हैं- डॉव थ्योरी द्वारा शेयर मार्केट से वेल्थ क्रिएट करें? Dow Theory kya hai full jankari in Hindi.                                                                           

Dow theory in Hindi

अगर आप शेयर मार्केट ट्रेडिंग में एक्सपर्ट बनना चाहते हैं तो आपको रवि पटेल द्वारा शेयर मार्केट ट्रेडिंग के ऊपर लिखी बुक्स जरूर पढ़नी चाहिए। 
डॉव थ्योरी शेयर के प्राइस में होने वाले परिवर्तन का विश्लेषण करता है। यह टेक्निकल एनालिसिस का ही एक भाग है। कैंडलस्टिक पैटर्न की खोज के पहले से ही अमेरिकी स्टॉक मार्केट में डॉव थ्योरी का इस्तेमाल बड़े स्तर पर किया जाने लगा था। 
इस थ्योरी का आज भी शेयर मार्केट में सफलतापूर्वक उपयोग किया जा रहा है। यानि आज के टेक्नोलॉजी के समय में भी जब शेयर मार्केट में बहुत सारे ट्रेडिंग सॉफ्टवेयर उपलब्ध है। तब भी Dow theory प्रसांगिक बनी हुई है।

Dow theory क्या है? 

डॉव थ्योरी एक वित्तीय सिद्धांत है जो कि मार्केट का ट्रेंड (trend) बताता है। जैसे कि यदि मार्केट पिछले हाई से ऊपर जायेगा तो वह अपट्रेंड है। यदि मार्केट पिछले लो प्राइस से भी नीचे ट्रेड (trade) करता है तो यह डाउनट्रेंड है। इसी तरह यदि मार्केट अपने पिछले प्राइस के आस-पास ही घूमता रहता है तो यह साइडवे ट्रेंड है। 

चार्ल्स एच. डॉव ने वॉल स्ट्रीट जर्नल में शेयर मार्केट शेयर बाजार की तुलना समुद्र में आने वाले ज्वार से की थी। उन्होंने लिखा था, एक व्यक्ति जो समुद्र में ज्वार को मापने की कोशिश करता है। वह जोर से आने वाली तरंगों के पहुंचने के संभावित स्थान पर एक छड़ी को रखता है। 

यदि छड़ी के स्थान तक तरंगे नहीं पहुँचती तो वह जहाँ तक तरंगे पहुंच रही हैं। वहाँ पर छड़ी को रख देता है। इस तरह वह व्यक्ति पता लगा लेता है कि ज्वार पीछे हट गया है। यह विधि शेयर बाजार के उतार-चढाव को जानने के लिए अच्छी है।  टेक्निकल एनालिसिस में डॉव् थ्योरी का बहुत महत्व है।  

डॉव थ्योरी को Charles H. Dow ने अपने Stock market के लम्बे अनुभव के आधार पर बनाया था। उन्होंने ही वॉल स्ट्रीट जर्नल अख़बार की स्थापना भी की थी। अपने समय के दौरान 1900s में उन्होंने अख़बार में एक सीरीज लिखी जिसे बाद के वर्षों में डॉव थ्योरी के रूप में जाना गया। तब से लेकर आज तक यह Dow Theory के रूप में प्रसिद्ध है। 
William P Hamilton ने अख़बार से चार्ल्स डॉव के लेखों को सताइस वर्षों के अथक परिश्रम से उदाहरण सहित The Dow Theory के नाम से संकलित लिया था। इलियट वेव थ्योरी 

डॉव थ्योरी के सिद्धांत (The Dow Theory Principles) 

डॉव थ्योरी कुछ मान्यताओं पर बनी है, इन्हे डॉव थ्योरी सिद्धांत कहा जाता है। Charles H Dow ने इन्हे शेयर मार्केट के अपने अनुभव और अवलोकन के आधार पर विकसित किया था। डॉव थ्योरी के मुख्य कई सिद्धांत बताये गए हैं। डॉव थ्योरी के मुख्य सीतान्त निम्नलिखित हैं- 

मार्केट डिस्काउंट एवरीथिंग: स्टॉक मार्केट इंडेक्स और stocks के प्राइस में सभी जानी -अनजानी न्यूज़, अर्थवयवस्था की स्थिति, फंडामेंटल आदि। जो भी पब्लिक डोमेन में है, शामिल होता है। यदि कोई अप्रत्याशित घटना जैसे युद्ध, आतंकवादी अटैक आदि होती है तो मार्केट खुद के प्राइस में परिवर्तन करके बहुत जल्दी सही मूल्य पर आ जाता है। 

Dow Theory में शेयर मार्केट के तीन मुख्य Trend बताये गए हैं-
  1. प्राइमरी ट्रेंड
  2. सेकेंडरी ट्रेंड 
  3. माइनर ट्रेंड 
प्राइमरी ट्रेंड: Primary trend शेयर मार्केट का मुख्य ट्रेंड है, जो एक साल से लेकर के कई सालों तक चल सकता है। यह मार्केट की कई सालों तक चलने वाली दिशा को बताता है। लॉन्ग-टर्म इन्वेस्टर मार्केट के प्राइमरी ट्रेंड को देखकर ही Stocks में बाइंग और सेलिंग के निर्णय करते हैं। प्राइमरी ट्रेंड अपट्रेंड या डाउनट्रेंड दोनों में से कोई भी हो सकता है।

सेकेंडरी ट्रेंड: Secondary Trend शेयर मार्केट या stocks में प्राइमरी ट्रेंड के अंदर समय-समय प,र जो करेक्शन आते हैं। ये शेयर मार्केट के लॉन्ग-टर्म ट्रेंड के दौरान आने वाले छोटे-छोटे ट्रेंड हैं। उदाहरण स्वरूप- Bull market में करेक्शन और Bear market में तेजी इन्हें काउंटर-ट्रेंड भी कहा जाता है। ये कुछ सप्ताह से लेकर कुछ महीनों तक भी चल सकते हैं।
 
माइनर ट्रेंड; स्टॉक मार्केट और स्टॉक्स में डेली जो उतार-चढ़ाव होता है। उसे माइनर ट्रेंड या डेली फ्लेकचुएशन (fluctuations) कहा जाता है। Dow Theory में उपर्युक्त तीन प्रकार के मुख्य ट्रेंड बताये गए हैं। 

मार्केट के ओवर ऑल ट्रेंड के लिए सभी इंडेक्स की तुलना करनी चाहिए। बाजार में तेजी तभी है, जब सभी इंडेक्स जैसे निफ्टी, बैंक निफ्टी, निफ्टी मिडकैप, निफ्टी स्मालकैप एक साथ तेजी में चल रहे हैं। तभी मार्केट में तेजी कही जाएगी। केवल एक इंडेक्स निफ्टी की तेजी को पूरे शेयर मार्केट की तेजी नहीं कह सकते। 

Trading Volume की पुष्टि: Dow theory में लिखा है कि मार्केट या stocks के प्राइस के साथ Trading volume को भी देखना चाहिए। किसी भी ट्रेंड को वॉल्यूम का भी सपोर्ट होना चाहिए। यानि अपट्रेंड के दौरान प्राइस बढ़ने के साथ-साथ वॉल्यूम भी ज्यादा होना चाहिए और अपट्रेंड के दौरान गिरावट होने पर वॉल्यूम कम होना चाहिए। इसी तरह शेयर मार्केट या स्टॉक्स में डाउनट्रेंड के दौरान गिरावट के समय वॉल्यूम ज्यादा होना चाहिए और डाउनट्रेंड के समय, यदि तेजी होती है तो उस समय वॉल्यूम कम होना चाहिए। 

साइडवे मार्केट: Dow theory के अनुसार मार्केट और शेयर ज्यादार समय साइडवे ही रहते हैं। यानि की एक ही रेंज में घूमते रहते हैं। जैसे कि रिलायंस इंडस्ट्री का शेयर 2009-20011 तक साइडवे ट्रेड कर रहा था। साइडवे मार्केट में स्टॉक्स के प्राइस एक रेंज में घूमते रहते हैं। 

साइडवे मार्केट को सेकेंडरी मार्केट का सब्स्टीट्यूट भी कह सकते हैं। ओपन, हाई, लो और क्लोज प्राइस में क्लोज प्राइस सबसे महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि क्लोजिंग प्राइस ही पूरे दिन के दौरान की प्राइस का प्रतिनिधित्व करता है। 


Share market के विभिन्न चरण 

Dow Theory के अनुसार स्टॉक मार्केट के अलग-अलग चरण होते हैं। जो समय-समय पर अपने आप को बार-बार दौहराते रहते हैं। डॉव थ्योरी के अनुसार शेयर मार्केट निम्नलिखित चरण होते हैं-
  1.  संचय चरण (accumulation phase) 
  2. मार्कअप चरण (markup phase)
  3. वितरण चरण distribution phase) 
  4. सर्कल पूरा करना (Completing the circle)
1. संचय चरण: Accumulation phase यह चरण मार्केट में आमतौर पार भारी गिरावट के बाद आता है। भारी गिरावट के बाद बहुत सारे इन्वेस्टर और ट्रेडर विशेषकर रिटेल इन्वेस्टर और ट्रेडर हताश और निराश होकर शेयर मार्केट से बाहर हो जाते हैं। उन्हें शेयरों की कीमतों में बढ़ोतरी की कोई उम्मीद नहीं रहती है। इससे शेयरों की कीमत अपने निम्नतम स्तर तक गिर जाती हैं। लेकिन फिर भी रिटेल इन्वेस्टर stocks खरीद नहीं पाते। 

उन्हें कीमतें और गिरने का खतरा रहता है और स्टॉक्स की कीमतें गिरने के कारण हुए नुकसान की वजह से उनके पास पैसा भी नहीं होता है। इस समय शेयर मार्केट सेंटीमेंट भी बहुत खराब होता है। यही वह समय होता है जब संस्थागत निवेशक (स्मार्ट मनी) शेयर मार्केट में प्रवेश करते हैं।

संस्थागत निवेशक यानि FII & DII सामान्यतः लम्बी अवधि के निवेशक होते हैं। वे शेयरों में निवेश के लिए जो कीमतें चाहते हैं। ऐसी कीमतें भारी बिकवाली के बाद ही मिलती हैं। जब शेयरों की कीमतें अपने न्यूनतम स्तर पर होती हैं। तब संस्थागत निवेश धीरे-धीरे कुछ समय के अंतराल पर, नियमित रूप से बड़ी मात्रा में स्टॉक्स खरीदना शुरू कर देते हैं। 

जिसकी वजह से स्टॉक्स के प्राइस को सपोर्ट मिलता है जिससे प्राइस और नीचे नहीं जा पाते है।  इसे ही एक्युमुलेशन पीरियड (संचय चरण) कहा जाता है। 

2. मार्कअप चरण: Markup phase वह होता है, जब एफआईआई और डीआईआई (smart money) शेयर मार्केट में उपलब्ध सभी शेयरों को अवशोषित (absorb) कर लेते हैं। तब वहाँ पर बॉटम बनने लगता है। जिसकी वजह से शार्ट-टर्म ट्रेडर्स को फायदा होने लगता है। इससे मार्केट सेंटीमेंट सुधरने लगता है और शेयरों की कीमतें बढ़ने लगती हैं, इसे ही मार्कअप चरण कहा जाता है। 

इस चरण में कीमतें तेजी से और लगातार बढ़ती हैं। इस चरण में स्टॉक मार्केट में तेज गति से रैली आती है। जिसके कारण रिटेल निवेशकों को लगता है कि वे इस रैली से लाभ नहीं कमा पाए। जिन्होंने इस दौरान स्टॉक्स में निवेश किया। वे ट्रेडर्स पैसा कमाने में सफल रहते हैं। इस चरण में मार्केट के और ऊपर जाने की काफी संभावना रहती है। NSE - BSE holidays

 3. वितरण चरण: Distribution phase वह होता है, जब शेयरों की कीमत नई ऊँचाई (52 सप्ताह की ऊँचाई और ऑल टाइम हाई) पर पहुँचती हैं। तब चारों तरफ शेयर मार्केट के बारे में बातें होने लगतीं हैं। सभी न्यूज़ पेपर्स और चैनल शेयर मार्केट के बारे में आशावादी हो जाते हैं। इस समय सभी लोग शेयर मार्केट में निवेश करना चाहते हैं। ये वितरण चरण (Distribution phase) होता है। 

संस्थागत निवेशक (smart money) जो शुरुआत (accumulation phase) में ही आ गए थे। धीरे-धीरे अपने शेयरों को बेचना शुरू कर देते हैं। इस दौरान रिटेल निवेशक सोचते हैं कि शेयरों के प्राइस और बढ़ेंगे अतः वे शेयरों को आवश्यक समर्थन मूल्य देकर खरीद लेते हैं।

Distribution phase aur accumulation phase दोनों करीब-करीब यह समान ही होते हैं। जैसे एक्युमुलेशन फेज में संस्थागत निवेशकों के बड़े स्तर पर खरीदारी करने के कारण शेयरों के प्राइस को निचले स्तर पर सपोर्ट मिलता है। इसी तरह डिस्ट्रीब्यूशन फेज में जब संस्थागत निवेशक अपने शेयरों को ऊँची कीमत पर बेचते हैं तो रिटेल निवेशकों के द्वारा बड़े स्तर पर खरीदारी करने के कारण शेयरों के प्राइस को सपोर्ट मिलता है। इससे शेयरों की कीमत ज्यादा नीचे नहीं जा पाती है। 

डिस्ट्रीब्यूशन फेज में जब भी स्टॉक्स के प्राइस ऊपर जाने का प्रयास करते हैं, तभी संस्थागत निवेश अपनी होल्डिंग्स को बेच (ऑफलोड) देते हैं। यह क्रिया बार-बार लगातार दोहराई जाती है, जिससे ऊपर की तरफ रेसिस्टेन्स लेवल बन जाता है।  जिसकी वजह से स्टॉक्स की कीमतें नीचे आने लगती हैं। इस दौरान रिटेल निवेश चाहे कितने ही कम मूल्य पर स्टॉक्स खरीदें लेकिन वे नुकसान में ही रहते हैं। 

Dow theory के अनुसार अंत में जब संस्थागत निवेशक अपनी पूरी होल्डिंग्स बेच देते हैं। तो आगे शेयर के प्राइस के लिए कोई सपोर्ट नहीं रहता है। जिससे Stock market में पूरी तरह से बिकवाली हावी हो जाती है। जिसकी वजह से शेयरों की कीमतें बहुत ज्यादा नीचे आ जाती हैं और रिटेल निवेशक भारी नुकसान में होते हैं। अतः शेयर मार्केट में भारी गिरावट की वजह से रिटेल निवेशकों में मायूसी छा जाती है।

4. सर्कल पूरा करना (Completing the circle): शेयर मार्केट में बड़े स्तर पर सेलऑफ़ के कुछ समय बाद डिस्ट्रीब्यूशन फेज का एक नया दौर फिर से आता है। फिर से पूरा चक्र दोहराया जाता है। Dow Theory के अनुसार एक चक्र (एक्युमुलेशन से डिस्ट्रीब्यूशन तक) को पूरा होने में कई वर्ष का समय लग सकता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि कभी भी दो चक्र एक समान नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए 2006-07 में स्टॉक मार्केट क्रेश होने के बाद 2014 से शुरू हुआ बुल मार्केट अलग है। 

कभी-कभी शेयर मार्केट लम्बे समय (कई वर्षों) तक एक्युमुलेशन फेज में रह सकता है। कभी-कभी मार्केट कुछ ही महीनों में एक्युमुलेशन से डिस्ट्रीब्यूशन फेज में जा सकता है। जो लोग शेयर मार्केट से पैसा कामना चाहते हैं। उन्हें अलग-अलग फेज में सही तरीके से मार्केट का मूल्यांकन करना आना चाहिए। तभी वे शेयर मार्केट से  वेल्थ क्रिएट कर सकते हैं। 

डॉव पैटर्न्स (The Dow Patterns) 

Dow Theory के कुछ बेसिक पैटर्न हैं, जिनका कैंडलस्टिक पैटर्न के साथ संयोजन करके उपयोग किया जाता है। डबल और ट्रिपल फॉर्मेशन रिवर्सल पैटर्न हैं, ये काफी प्रभावशाली हैं। ट्रेडर्स इस पैटर्न्स का उपयोग करके मार्केट में ट्रेडिंग अपॉर्च्युनिटी खोजने के लिए कर सकते हैं। इनमे कुछ पैटर्न्स निम्नलिखित हैं-

डबल टॉप (Double Top): यह एक बियरिश ट्रेंड रिवर्सल पैटर्न है, यह काफी बड़े स्ट्रॉग मूव के बाद बनता है। इसमें प्राइस में स्ट्रांग अपमूव आता है। प्राइस एक निश्चित लेवल को हिट करके थोड़ा नीचे की तरफ आते हैं। प्राइस दोबारा ऊपर की तरफ बाउंस बैक करते हैं और फिर वापस नीचे की तरफ वापस आ जाते हैं। यह पैटर्न अंग्रेजी के M अक्षर की तरह होता है। 

डबल टॉप पैटर्न में सेकेंड टॉप फर्स्ट टॉप से ऊपर नहीं जा पता है, यही ट्रेंड रिवर्सल का स्ट्रांग चिन्ह होता है कि ट्रेंड रिवर्सल आ रहा है। चार्ट पर Double Top पैटर्न बनने के बाद आपको स्टॉक बेचना करना चाहिए। आपको चार्ट पर यह देखना चाहिए कि प्राइस नेकलाइन को ब्रेक करके नीचे आ रहे हैं या नहीं।
                                                                                    
Dow pattern

डबल बॉटम (Double Bottom): यह एक बुलिश रिवर्सल पैटर्न है, लेकिन इसके बनने पर लॉन्ग पोजीशन ली जाती हैं। यानि शेयर खरीदे जाते हैं। यह पैटर्न डबल टॉप पैटर्न का बिलकुल उल्टा पैटर्न होता है। यह अंग्रेजी के अक्षर W के समान पैटर्न बनता है और यह लम्बे डाउन ट्रेंड के बाद बनता है। 

आप उपर्युक्त चार्ट में देख सकते हैं कि प्राइस फर्स्ट बॉटम से नीचे नहीं जा पाते हैं। यानि आगे और सेलर नहीं हैं, सेलिंग प्रेशर खत्म हो चुका है तथा रिवर्सल आ रहा है। प्राइस के नेकलाइन को ऊपर की तरफ क्रॉस करने के बाद शेयर में एक अच्छा अपमूव बनता है। शेयर में डबल बॉटम बनने के बाद इन्वेस्ट करके अच्छा प्रॉफिट कमाया जा सकता है।

ट्रिपल टॉप (Triple Top): ट्रिपल टॉप पैटर्न भी डबल टॉप पैटर्न की ही तरह है। लेकिन इसमें तीन टॉप बनते हैं। यानि कि प्राइस ऊपर की तरफ एक ही लेवल से बार-बार रेसिस्टेन्स लेकर बीचे आता है। इसका सीधा सा मतलब है कि मार्केट (stocks) इस पर्टिकुलर लेवल से ऊपर नहीं जा पा रहा है। अतः इस लेवल पर बिकवाली करनी चाहिए। यह भी एक बियरिश रिवर्सल पैटर्न है। ट्रिपल टॉप चार्ट पैटर्न बनने के बाद भी शेयरों में बिकवाली करनी चाहिए। 
ट्रिपल बॉटम (Triple Bottom): यह पैटर्न भी डबल बॉटम पैटर्न के ही समान पैटर्न है। इस पैटर्न में प्राइस एक निश्चित लेवल के नीचे नहीं जा पाते हैं। प्राइस वहां से बार-बार सपोर्ट लेकर ऊपर की तरफ आ जाते हैं। ट्रिपल बॉटम पैटर्न एक बुलिश रिवर्सल पैटर्न है। ट्रिपल बॉटम चार्ट पैटर्न के बनने पर शेयरों में खरीदारी करनी चाहियें। 

सपोर्ट और रेसिस्टेन्स लेवल (Support & Resistance Level): जब प्राइस सपोर्ट लेवल से नीचे गिरते हैं तो वह लेवल एक रेजिस्टेंस बन जाता है। जब प्राइस रेजिस्टेंस लेवल से ऊपर निकल जाते हैं तो लेवल सपोर्ट लेवल बन जाता है। 

Dow theory में बताया गया है कि शेयर मार्केट और स्टॉक्स में यह प्रक्रिया बार-बार और लगातार दोहराई जाती है। सपोर्ट और रेजिस्टेंस लेवल जब टूटते हैं तो इनके ब्रेकआउट का होल्ड करना। इनके टूटने की तीव्रता (volume) पर निर्भर करता है।

ट्रेंड की पुष्टि वॉल्यूम से की जाती है (Trend conformed by Volume): Charles H. Dow का मानना था कि मार्केट ट्रेंड की पुष्टि मार्केट और स्टॉक के ट्रेडिंग वॉल्यूम के द्वारा की जाती है। जब शेयर प्राइस कम ट्रेडिंग वॉल्यूम के साथ ऊपर-नीचे होती हैं तो इसके कई मतलब हो सकते हैं। जैसे कोई एक आक्रामक खरीददार या विक्रेता ट्रेडिंग, इन्वेस्टिंग कर सकता है।

Dow Theory के अनुसार जब प्राइस में उतार-चढ़ाव हाई वॉल्यूम के साथ होते हैं तो वह मार्केट के सही ट्रेंड को बताते हैं। यदि मार्केट में बहुत सारे लोग एक जैसी एक्टिविटी (खरीददारी और बिकवाली) कर रहे हैं। तब प्राइस हाई वॉल्यूम के साथ एक ही दिशा (ऊपर या नीचे) की तरफ भागते हैं। डॉव के अनुसार यही वह दिशा है, जिसकी मार्केट से उम्मीद थी। ट्रेडिंग वॉल्यूम ही वह सिग्नल है, जिससे ट्रेंड डवलप होता है। 

मार्केट ट्रेंड तब तक मौजूद रहते है, जब तक कि trend समाप्त होने के साफ संकेत नहीं मिलते कि मौजूदा ट्रेंड समाप्त हो चुका है। यानि रिवर्सल आ चूका है, डॉव थ्योरी के अनुसार मार्केट में थोड़े समय के लिए वर्तमान ट्रेंड के विपरीत ट्रेंड आते रहते हैं। लेंकिन कुछ समय बाद मार्केट में फिर से लॉन्ग-टर्म फिर से वापस आ जाता है।
 
Share market में समय-समय पर आने वाले ट्रेंड रिवर्सल को, यह निर्धारित करना कि क्या यह टेम्परेरी मूवमेंट है? या  यह रिवर्सल नए ट्रेंड की शुरुआत है। टेक्निकल एनालिसिस के द्वारा इसमें क्लेरिटी लाई जा सकती है। लेकिन एक्सपर्ट इसकी अलग-अलग व्याख्या कर सकते हैं।
 
रेंज ट्रेडिंग (Range Trading): रेंज फॉरमेशन Dow Theory का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है। जब स्टॉक्स या मार्केट में प्राइस बहुत समय तक एक ही दायरे में घूमते रहते हैं। तब कहा जाता है कि मार्केट या स्टॉक्स एक रेंज में है। 

इसमें मार्केट या स्टॉक्स का प्राइस बार-बार ऊपर और नीचे एक निश्चित प्राइस तक ही जा पाता है। इस तरह के मार्केट में कोई ट्रेंड नहीं बन पाता है इसलिए इसे साइडवे मार्केट भी कहा जाता है। 
     
                                                                                 
Range trading

ऐसा इसलिए होता है, जब स्टॉक्स खरीदने और बेचने वाले दोनों ही निश्चित नहीं होते कि मार्केट किधर जायेगा। तब मार्केट एक रेंज में रहता है। ऐसा मार्केट लॉन्ग-टर्म इन्वेस्टर्स को अच्छा नहीं लगता है। साइडवे मार्केट में भी ट्रेडिंग करने के काफी मौके होते हैं। इसमें आप दोनों तरफ के ट्रेड ले सकते हैं। 

जब मार्केट रेंज के नीचे सपोर्ट की तरफ हो तब आप stocks खरीद सकते हैं। और जब मार्केट रेंज के ऊपर रेसिस्टेन्स तरफ हो तो आप शेयरों को बेचकर पैसे कमा सकते हैं। आप शार्ट सेलिंग भी कर सकते हैं। जब मार्केट रेंज में हो तब शार्ट-टर्म ट्रेडर्स रेंज ट्रेडिंग करके पैसा कमा सकते हैं। 

रेंज ब्रेकआउट (Range Breakout): Dow Theory के अनुसार जब stocks लम्बे समय तक एक रेंज में रहते हैं तो जब कभी वो उस रेंज को तोड़ देते हैं।इसे ही रेंज ब्रेकआउट कहते हैं, किसी भी शेयर के लम्बे समय तक एक रेंज में रहने के निम्नलिखित दो कारण हो सकते हैं-
  1. जब शेयर के चलने के कोई खास फंडामेंटल संकेत नहीं होते हैं- जैसे नए प्रोडक्ट लॉन्च नहीं करना, नए अधिग्रहण नहीं करना, नए जॉइंट वेंचर नहीं करना, मैनेजमेंट में लम्बे समय से बदलाव नहीं करना, कंपनी तिमाही और सालाना रिजल्ट सामान्य आना आदि। यानि जब कंपनी के बारे में कोई अच्छी या बुरी खबर नहीं होती है, उन कंपनियों के स्टॉक्स सामान्यतः एक रेंज में रहते हैं।  
  2. किसी नए ऐलान का इंतजार- जैसे जब शेयर मार्केट कंपनी से किसी बड़े ऐलान की उम्मीद कर रहा होता है। जिसके कारण शेयर काफी ऊपर या नीचे जा सकते हैं। इस कारण स्टॉक्स कम समय के लिए ही एक रेंज में रहते हैं। जब एक कंपनी ऐलान नहीं कर देती है। 
Dow Theory के अनुसार जब शेयर रेंज को तोड़ता है तो वह नई दिशा (new trend) की तरफ इशारा करता है। रेंज ब्रेकआउट की दिशा आने वाली न्यूज़ पर निर्भर करती है। यदि न्यूज़ कंपनी के लिए पॉजिटिव है, तब शेयर का प्राइस रेंज के ऊपर की तरफ ब्रेकआउट करेगा। इसी तरह यदि न्यूज़ कंपनी के लिए नेगेटिव है तो शेयर का प्राइस रेंज के नीचे की तरफ ब्रेकआउट देगा। 

ब्रेकआउटरेंज के ऊपर की तरफ हो या नीचे की तरफ, वह बहुत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि वह ट्रेडिंग करने का मौका देता है। जब प्राइस रेंज के रेजिस्टेंस को तोड़कर ऊपर की तरफ जाये। तब लॉन्ग पोजीशन बनानी चाहिए। इसी तरह यदि प्राइस रेंज के सपोर्ट को तोड़कर नीचे की तरफ जाये तो शार्ट पोजीशन बनानी चाहिए। 

ट्रेडर को हमेशा फाल्स ब्रेकआउट (false breakout) से बचना चाहिए, फाल्स ब्रेकआउट तब होता है जब ट्रिगर कमजोर होता है। जब रिटेल ट्रेडर छोटी से न्यूज़ को बड़ी समझकर स्टॉक्स में पोजीशन बनाने लगते हैं। आमतौर पर फॉल्स ब्रेकआउट में वॉल्यूम काफी कम रहते हैं क्योंकि स्मार्ट मनी फॉल्स ब्रेकआउट में शामिल नहीं होती है।

फॉल्स ब्रेकआउट के बाद स्टॉक्स का प्राइस वापस अपनी रेंज में चला जाता है। ब्रेकआउट में दो शर्तों का पूरा होना जरूरी है- 
  1. हाई वॉल्यूम 
  2. मोमेंटम यानि ब्रेकआउट के बाद शेयर के प्राइस मेंतेजी से बदलाव
रेंज ब्रेकआउट में ट्रेडिंग: जब कोई शेयर अपनी रेंज से हाई वॉल्यूम के साथ ब्रेकआउट देता है। तब उस शेयर में पोजीशन बनानी चाहिए। अच्छा ब्रेकआउट, ट्रेड की सिर्फ पहली शर्त को पूरा करता है। दूसरी शर्त को जानने का कोई जरिया नहीं है इसलिए रेंज ब्रेकआउट में हमेशा स्टॉपलॉस रखना चाहिए। जैसे की शेयर नब्बे से सौ रेंज में ट्रेड कर रहा है। 

अगर अपनी रेंज को तोड़कर एक सौ पांच के आस-पास पर ट्रेड करने लगता है तो इस स्थिति में सौ रूपये का स्टॉपलॉस रखना चाहिए। यानि पांच पॉइंट का। यदि शेयर रेंज को नीचे की तरफ तोड़कर नब्बे के नीचे पच्चासी के आस-पास ट्रेड करने लगता है। इस ट्रेड में पोजीशन बनाने पर नब्बे यानि पाँच पॉइंट का स्टॉपलॉस रखना चाहिए। इस ट्रेड में रेंज के बराबर के टार्गेट रखना चाहिए, यानि दस पॉइंट का। 

फ्लैग पैटर्न (Flag Pattern): फ्लैग चार्ट पैटर्न भी Dow Theory का ही हिस्सा हैं। फ्लैग पैटर्न तब बनता है, जब एक शार्प अपमूव या शार्प डाउनफॉल के बाद मार्केट एक छोटी रेंज में कंसोलिडेट होने लगता है। फ्लैग पैटर्न में झंडे वाले हिस्से को समानांतर लाइन के बीच में चलना चाहिए। इसे थोड़ा ऊपर या नीचे और थोड़ा तिरछा भी किया जा सकता है। ट्रेड तब लेना चाहिए, जब प्राइस अपनी ऊपरी या निचली लाइन को तोड़कर उसकी दिशा में चले लगे। फ्लैग पैटर्न दो प्रकार के होते हैं- 

Dow Theory के मुख्य बिंदु 

कैंडलस्टिक पैटर्न के अस्तित्व में आने से भी पहले से शेयर मार्केट में, पश्चिमी देशो (विशेषकर अमेरिका) में डॉव थ्योरी का उपयोग किया जाता था। डॉव थ्योरी नौ मुख्य सिद्धांतों पर काम करती है। इसके अनुसार मार्केट के तीन बुनियादी चरण हैं-1. एक्युमुलेशन पीरियड 2. मार्कअप पीरियड 3. डिस्ट्रीब्यूशन पीरियड। 
  1. एक्युमुलेशन फेज जब होता है तब संस्थागत निवेशक (smart money) स्टॉक्स में खरीददारी शुरू करते हैं।
  2. मार्कअप फेज जब होता है तब ट्रेडर स्टॉक्स में खरीददारी और बिकवाली करते हैं। 
  3. डिस्ट्रीब्यूशन फेज में बड़ी मात्रा में रिटेल इन्वेस्टर स्टॉक्स में खरीदारी करते हैं और संस्थागत निवेशक (smart money) प्रॉफिट बुक करते हैं।
डिस्ट्रीब्यूशन फेज के बाद मार्कडाउन फेज होता है, इसके बाद एक्युमुलेशन फेज इस सर्कल को पूरा करता है।
Dow Theory के अनुसार रेंज तब बनता है जब शेयर का प्राइस दो पॉइंटों के बीच घूमता रहता है। आप पॉइंटों ने निचले स्तर पर शेयर खरीद सकते हैं। इसी तरह इन पॉइंटों के ऊपरी स्तर पर शेयर को बेच सकते हैं। 

कोई भी शेयर रेंज में तब रहता है, जब कोई फंडामेंटल ट्रिगर न हो या शेयर में कोई न्यूज़ न हो। जब शेयर में हाई वॉल्यूम के साथ रेंज ब्रेकआउट होता है। तब आप शेयर में पोजीशन बनाकर प्रॉफिट कमा सकते हैं।   

Dow Theory के कुछ बेसिक पैटर्न हैं, जिनका कैंडलस्टिक पैटर्न के साथ संयोजन करके उपयोग किया जाता है। डबल और ट्रिपल फॉर्मेशन रिवर्सल पैटर्न हैं, ये काफी प्रभावशाली हैं।

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